अपने ही अन्दर है आनन्द का सागर

 अपने ही अन्दर है आनन्द का सागर

महामण्डलेश्वर स्वामी भास्करानन्द


सिकन्दरपुर (बलिया)


पूर्व मौनव्रती परिव्राजकाचार्य स्वामी ईश्वरदास ब्रह्मचारी जी महाराज द्वारा सरयू तटवर्ती ग्राम हा बिहरा में आयोजित महान राजसूय यज्ञमें भक्तिभूमि वृन्दा- वन से पधारे महामण्डलेश्वर आचार्य स्वामी भास्करानन्द जी महाराज ने शिवपुराण पर आधारित अपने वक्तव्य में कहा कि कथा शान्तचित्त होकर सुननी चाहिए। आप में धार्मिकता होगी तो अच्छे विचार आयेंगे और धार्मिकता न होने से बुरे विचार आयेंगे। योग और भोग दोनों के लिए एकान्त चाहिए। एक बार देवर्षि नारद को हिमालय की सुनसान गुफा समाधि लग गयी। समाधि लगने पर सँसार शून्य हो जाता है। योगी बाहर आने में घबड़ाता है और भोगी अन्दर जाने में धबड़ाता है। अन्दर आनन्द का सागर है और बाहर क्षणिक सुख की एक बूँद है। नारदीय तप से इन्द्र भयभीत हुआ कि उसका पद छिनन जाय। इन्द्र प्रेरित कामदेव देवर्षि के पास पहुँचा किन्तु नारद जी अटल थे। ऐसे ही अब शंकर समाधिस्थ ये तो कामदेव उनके पास अपनी माया फैलाया, शंकर ने त्रिनेत्र खोल उसे भस्म कर दिया। कामना के फारण दुनिया नरक बनी हुई है, कामना न रहे तो दुनिया स्वर्ग बन आय | सफलता का श्रेय प्रभु को देना, अहंकार मत करना। देवर्षि अपनी सफलता का गर्व हो गया। यह बात ब्रह्मा, शंकर को हजम न हुई। नारदजी वैकुण्ठवासी विष्णु के पास गये। भगवान को पापी से घृणा नहीं, बस उन्हें अहंकार से घृणा है। नारद ने प्रणाम का दिखावा और विनय का प्रदर्शन किया, काम पर अपनी विजय की बात बताकर वहाँ से आगे चले । मार्ग में प्रभु-प्रेरित विश्व सुन्दरी का स्वयंवर देखा विमोहित नारद ने विष्णु से सुन्दर रूप माँगा। उनका गर्व तोड़ने हेतु उन्हें बन्दर की मुखाकृति मिली। नारद ठगे से रह गये।


बक्ता ने कहा कि काम को उद्दीप्त करने वाला क्रोधही है। अभिमान का बीजांकुर नारद को चलने नहीं दिया। पाप होना कोई बड़ी बात नहीं किन्तु पश्चान्ताप न करना ही बड़ी बात है। पश्चान्ताप से पापों का शमन वैसे ही होता है जैसे लोहे पर चढ़े विकारों को अग्नि जला डालता है। तीर्थों में भ्रमण करते नारदजी पिता ब्रह्मा के पास जाकर उनसे शिवतत्त्व के गूढ़ रहस्यों को सुन समझे। स्वामी जीने बिना किसी का नाम लिए कहा कि आप इबादत करो और अन्यान्य लोगों को भी आराधना करने दो, अकारण देवालय तोड़ना और खून की नदियाँ बहाना (जैसा कि कहा-सुना जाता है) मानवता के लिए कलंक, कोरी धर्मान्धता और अहंकार का सूचक है। उन्होंने कहा कि ब्रह्मा जी ने देवर्षि नारद को बताया कि जब संसार नहीं था तब भी परमात्मा था, वह आज भी है और जोग भी रहेगा। वह निराकार निर्गुण अव्यय अनाम ज्योति स्वरूप है,जिसमें सम्पूर्ण संसार निवास कर भी अदृश्य रहा है। परमात्मा के समान आइमाम का भी युगल है, अरूप है। उसी परमात्मा से सगुण साकार ब्रह्मादिक प्रकटे। सर्व व्यापक परमात्मा को पाने के लिए। विषयों की ओर से मोड़‌कर परमात्मा में लगा देना तप है। कोई रूप नहीं है, आत्मा हुआ; शक्ति सहित तप अनिवार्य है। अपने मन को



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