सोशल मीडिया के रील कल्चर में उलझता बलिया

सोशल मीडिया के रील कल्चर में उलझता बलिया


रील संस्कृति की चकाचौंध में गुम होती असल ज़िंदगी

– सामाजिक मूल्यों के क्षरण पर बलिया की ज़मीनी हकीकत

बलिया आजमगढ़ लखनऊ उत्तरप्रदेश



कभी घरेलू उत्पादों, पारिवारिक मूल्यों और सादगी की मिसाल रहा बलिया आज सोशल मीडिया के रील कल्चर में उलझता जा रहा है। पहले जहाँ गाँव की महिलाएँ बिंदी, अगरबत्ती, पापड़, अचार, सिलाई-कढ़ाई जैसे घरेलू कार्यों से समय का सदुपयोग करती थीं, वहीं आज बेटियाँ मोबाइल कैमरे के सामने पोज़ देती नज़र आती हैं। लड़के भी पढ़ाई-लिखाई या मेहनत छोड़ इंस्टाग्राम पर फॉलोवर गिनने में लगे हैं।

रेवती, नवानगर, सिकन्दरपुर जैसे क्षेत्रों में यह आम बात हो गई है कि युवा खुले खेत, छतों, यहाँ तक कि मंदिरों और स्कूलों में रील बनाते दिखते हैं। यह न सिर्फ आस्था और अनुशासन का उल्लंघन है, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से गंभीर चिंता का विषय भी है।

विवाह जैसे गंभीर विषय पर भी इस ‘डिजिटल नशे’ का असर दिखने लगा है। अब रिश्ते की बात चलने पर सबसे पहले यह पूछा जाता है – “इंस्टाग्राम आईडी है?”, “कितने फॉलोवर हैं?” संस्कार, शिक्षा और परिवार की जिम्मेदारी अब दूसरे पायदान पर आ गई है।

विशेषज्ञों का मानना है कि यह सिर्फ मनोरंजन नहीं, एक सामाजिक विकृति बनता जा रहा है। इससे न केवल युवाओं का मानसिक विकास रुक रहा है, बल्कि घरेलू हुनर और कुटीर उद्योगों पर भी असर पड़ रहा है।


समाधान क्या हो?
समाज के प्रबुद्ध वर्ग, शिक्षकों, अभिभावकों और पंचायत प्रतिनिधियों को मिलकर इस दिशा में पहल करनी होगी:

  • विद्यालयों में डिजिटल संयम और सोशल मीडिया के सकारात्मक उपयोग पर शिक्षा दी जाए।
  • अभिभावकों को बच्चों के मोबाइल उपयोग की समय-सीमा तय करनी चाहिए।
  • गाँवों में स्किल ट्रेनिंग केंद्र खोलकर युवाओं को हुनरमंद बनाया जाए।

निष्कर्ष:
बलिया की पहचान उसकी संस्कृति, चेतना और कर्मठता रही है। रील और लाइक के दिखावे में इसे खोने देना समाज के भविष्य के साथ अन्याय होगा। वक़्त है कि हम असल जीवन की ओर लौटें—जहाँ मूल्य हों, मेहनत हो और आत्मनिर्भरता हो 

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