जीव का सबसे बड़ा बन्धन है विषयासक्ति
सिकन्दरपुर (बलिया)
महामण्डलेश्वर स्वामी भास्करानन्द
श्री वनखण्डीनाथ (श्री नागेश्वर नाश्च महादेव) मठ दूहा बिहरा, बलिया में पूर्व मौनव्रती पूज्य स्वामी ईश्वरदास ब्रह्मचारी जी महाराज द्वारा आयोजित अद्वैत शिवशक्ति राजसूय महायज्ञ के सत्संग भवन में व्यासपीठ से महा मण्डलेश्वर आचार्य स्वामी भास्करानन्द जी महाराज ने कहा कि बच्चों को दुलार प्यार शिक्षा स्वास्थ्य जरही है किन्तु उसके लिए उत्तम संस्कार देना सबसे जरूरी है। माता-पिता बनना कोई बड़ी बात नहीं, कुत्ते बिल्ली पशुपक्षी भी माता-पिता बनते हैं किन्तु मनुष्य की सन्तान में मनुष्यता का बीजारोपण होना नितान्त आवश्यक है। ऐसा न होने पर बच्चों में अनेक दुर्गुण आ जाते हैं, जैसा कि ब्राह्मण-पुत्र गुणनिधि निरंकुश और सुसंस्कार विहीन होने से चोर-डकैत बन गया तथा पिता द्वारा घर से वहिष्कृत हुआ।
पण्डितजी ने धन तो बहुत कमाया किन्तु बच्चे पर ध्यान नहीं दिया, फलतः पुत्र कुकर्मी हो गया। एक दिन पिता ने पुत्र से एक-एक सामान का ब्यौरा मांगा, घड़ी की बात भी पूछी क्योंकि पाँच हजार वर्ष पूर्व हमारे भारतीय विज्ञान ने घड़ी बनायी थी। जब कोई उत्तर न मिला तो पण्डित ने पुत्र और पली को घर से निकाल दिया, दिन भर के भूखे प्यास माँ-बेटे ने एक मन्दिर में शरणली, रात को मन्दिर परिसर में लोगों के सो जाने पर
गुणनिधि ने वहाँ भी चोरी की, पकड़े जाने पर उसकी इतनी पिटाई हुई कि उसका प्राणान्त हो गया। एक ओर से यमदूत और दूसरी ओर से शिवदूत आये। महाशिवरात्रि को भूखा रहने से गुणनिधिको शिवदूतों ने शिव लोक पहुँचा दिया। हालाँकि यह सुयोग शिवकृपा से मिला। कहा कि पूर्वजन्म का संस्कार व्यक्ति को खींचता है। स्वामी ईश्वरदास ब्रह्मचारी जी महायत
बचपन से सन्त हैं। पूर्वजन्म के संस्कार ने उन्हें इस ऊँचाई पर पहुँचाया। आपको अपने गुरु का संकल्प पूरा करना है। शिवाराधन से कुबेर ने अपना पद् प्राप्त किया। महात्मा बुद्ध राज परिवार से रहे किन्तु सर्वस्व त्याग कर तप द्वारा बुद्धत्व प्राप्त किये। निरन्तर दीपदान से अन्तः चक्षु का उन्मीलन होता है। शिव परमात्मा का चिन्तन करते-करते साध्धक भी शिवत्व प्राप्त कर लेता है। आप केवल भौतिकवादी मत बनो, अपनी अन्तश्चेतना को जागृत भी करो । संसार में रहते हुए अनासक्त रहा क्योंकि आसक्ति जीव का सबसे बड़ा बन्धन है। परमार्थ के साथ-साथ सेवा भी करो। तन-मन देना स्तुत्य है किन्तु क्षमता के अनुसार धन भी अर्पण करो, वहीं धन पवित्र है जो शुभ कार्यों में लगे। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये ही पञ्च विषय, इन्द्रियों के माध्यम सेजीव को प्रभावित करते हैं, यदि इन पर नियन्त्रण न हुआ तो दुर्गति से बचना असम्भव हो जाता है। मनुष्य तन वैभव विलास के लिए नहीं मिला है। आत्म-स्वरूप में प्रतिष्ठित होना हीदिवदुर्लभा मनुष्य-तन की सार्थकता है, एतदर्थ सद्गुरु-शरण अनिवार्य है
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