आयोजन के अभाव मे बलिया से धूमिल होती कजरी
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सुखपुरा(बलिया)।करीब डेढ़ दो दशक पहले सावन महीने में उल्लास से भरे गीत और बाग के झूले गवई इलाके की पहचान हुआ करते थेl सावन का आगमन होते ही कजरी गीतों का उनसे जुड़ जाना स्वाभाविक है। मन उमंग से भर उठता था। गांवों में जब यूवतियां सावन से पेड़ों पर झूला झूलते समय एक स्वर में कजरी गाती थीं, तो ऐसा लगता था कि सारा धरती अकाश झील झरने एवं संपूर्ण प्रकृति एक साथ गा रही है कजरी गीतों से न केवल मानव प्रभावित थे बल्कि समस्त जीव-जन्तु भी सावन की हरियाली व घुमड़ घुमड कर घेर रहे बादलों की उमंग से मदमस्त हो जाते थे। सावन के महीने में रिमझिम फुहारों के बीच जब गांव की महिलाएं झूला लगाती थी और कजरी के माध्यम से वीर रस की सुगंध भी करती थी तब पूरा वातावरण ही खुशनुमा हो जाता थाl लड़कियां व महिलाओं का झुंड इस दिन व रात तक झूले पर झुमकर कजरी गीत पिया मेहदी मगादा मोती झील से जाके साइकील से ना, घरवा में से निकले ननद- भऊजईया जुलम दोनों जोड़ी सांवरिया, अरे रामा चिलर गइले ससुरारी विलरिया माता गावे गारी रे हारी, घिर घिर आई बदरिया, सजन घर नाही हे रामा और धीमे धीमे बरसो से बदरिया सजन घर नही आयो रे रामा आदि सावन के सदाबहार लोकगीत महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले कजरी गीत अब बीते दिनों की बात हो जाएगी ।सुनते तो आज भी आप होंगे अगर आपको अच्छा लगता हो तो मगर यूट्यूब पर अब कोई झूला पर बैठकर इसे नही गा रहे। अधिकतर लोग तो शायद यह कौन सा गीत होता है इसे भी भूल चुके होंगे
कल तक पूर्वांचल के ग्रामीण इलाकों में लोकप्रिय कजरी गायन आज धूमिल होती नजर आ रही है हमें इसका अंदाजा तक नहीं कि हम अपने धरोहर को खो सकते हैं हम अपने पूर्वांचल की संस्कृति और सभ्यता को खो देंगे जिसे हमारे पूर्वजों ने कई सदियों से संभाल के रखा है यह हमारी विरासत है जिसे हम चाह कर भी फिर कभी वापस नहीं ला सकते। हम सबको चाहिए कि लोक गायन की इस विद्या को बढ़ावा दे और अपनी संस्कृति को बचाएं।
कजरी लोकगीत को वर्षा ऋतु का महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है लेकिन अब नवोदित गायकों द्वारा जो कजरी गाई जा रही है उसे बरसाती कजरी कहा जाए तो ज्यादा उचित होगा क्योंकि इसमें कजरी की आत्मा मर गई होती है पूर्वांचल की माटी और लोक संस्कृति से जुड़ी कजरी के बोल अब अपने मूल रूप को पीछे छोड़ती जा रही है अश्लीलता की मार कजरी पर पूरी तरह से असर डाल रखा है युवा पीढ़ी एक तो पहले ही ऐसे आयोजनों से दूर होती जा रही थी और ऐसे ही हाल रहे तो यह लोक विधा पूरी तरह से विलुप्त ही हो जाएगी। बदलते परिवेश में सावन भादो में गाई जाने वाली कजरी और झूला झूलने की परंपरा धीरे-धीरे गुम होती जा रही है एक समय ऐसा था कि सावन चले जाने के बाद भी कजरी हमारे होठों पर बनी रहती थी मगर आज कल्पना से भी गायब होती जा रही है समय इस कदर बदल गया है कि कजरी की जगह अब फिल्मी गीतों ने ले लिया है सिनेमा वाले ,एल्बम में गाने वाले ना तो इसकी तकलीफ को समझ पाते हैं ना तो अपनी गायकी से कजरी में रस ही पैदा कर पा रहे हैं
आधुनिकता के दौर में पश्चात जीवन शैली का अधिपत्य हो चुका है और व्यक्ति प्रकृति से दूर घरों में टीवी सीरियलों तथा मोबाइल के इर्द-गिर्द खुद को कैद कर लिया है आज ग्रामीण अंचलों में भी यह लोक विधाएं दम तोड़ती नजर आ रही है गांव का शहर की ओर पलायन करना लोक कलाओं का धूमिल होना भी कारण हो सकता है । जब परंपराएं सुरक्षित नहीं रहेगी तो निश्चित रूप से गीत भी सुरक्षित नहीं रह पाएंगे कजरी के मिठास को आगे आने वाली पीढ़ियों तक संजोए रखने की नैतिक जिम्मेदारी हम सभी की होनी चाहिए।
भोजपुरी लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी और श्री शारदा सिन्हा जी की गाई हुई कजरिया लोकगीत की अनमोल धरोहर है अब ना तो कजरी के कलाकार रहे और ना हीं कद्रदान जैसे-जैसे पुरानी पीढ़ी खत्म होती जा रही है कजरी भी दम तोड़ दी जा रही है ।कजरी गीत को बचाने की नितांत आवश्यकता है अन्यथा आने वाले समय में इसके बारे में बताने वाला भी कोई नहीं मिलेगा ।
सरकार को भी लोक कलाओं के संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए जिससे लोक संस्कृति और परंपराओं को भी जीवित रखा जा सके लोक विधा कजरी को विलुप्तिकरण से बचाने के लिए संस्कृति विभाग एवं सूचना विभाग नेहरू युवा केंद्र युवा कल्याण विभाग आदि की तरफ से जनपद स्तर पर भी समय-समय पर आयोजन होते रहना चाहिए तभी इस विधा को जीवित रखा जा सकता है।
डॉ0अरविंद कुमार उपाध्याय (संगीत शिक्षक)
म्यूजिक अकैडमी रामपुर महावल बलिया
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